पिछले साल मोदी सरकार ने किसानों के लिए एक अध्यादेश पेश किया था, यानी कि सरकार ने कृषि क्षेत्र में कानून व्यवस्था में परिवर्तन की मुहिम छेड़ी थी. जिसके बाद अफरा तफरी में सरकार ने तीन नए कृषि कानून बनाने के लिए बिल भी पास कर दिया था. लेकिन बिल पास होने के बाद किसान वर्ग रातो रात सड़कों पर उतर आया, और आज 1 साल से ज्यादा हो गया जब किसान वर्ग लगातार नए कानूनों के खिलाफ बगावत कर रहा है.
इसके लिए भारी मात्रा में पंजाब के किसानों ने अपना विरोध प्रदर्शन किया था, पंजाब के अलावा आंदोलन में हरियाणा, राजस्थान और उत्तर प्रदेश के किसान भी शामिल हैं. पूरे आंदोलन को “किसान आंदोलन” करार कर दिया गया. किसानों ने वर्ष भर सरकार के खिलाफ खूब बगावत की, रेलिया निकाली और महापंचायतें भी रखी लेकिन फिर भी लंबे समय तक सरकार ने किसानों की बात नहीं सुनी.
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लेकिन अब हाल ही में आखिरकार किसानों की उम्मीदें सच होने जा रही है क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने घोषणा कर दी है कि सरकार तीनों कृषि बिल रद्द करती है, इसके अलावा इस माह के अंत तक कृषि बिल रद्द करने की संपूर्ण संवैधानिक प्रक्रिया पूरी कर ली जाएगी. यहां सवाल यह पैदा होता है की आखिर 1 साल बाद सरकार ने बिल रद्द करने का फैसला क्यों लिया? क्या उन्हें किसानों की भावनाओं का सम्मान करते हुए यह फैसला लिया?
आखिर क्या है मोदी सरकार के इस फैसले की असली वजह ?
देश में आगामी कुछ महीनों में पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं, जिसमें उत्तर प्रदेश, पंजाब और उत्तराखंड जैसे राज्य सम्मिलित है. जैसा कि हम सभी जानते हैं उत्तर प्रदेश का विधानसभा चुनाव देश की राजनीति में एक अहम भूमिका निभाता है. मशहूर पत्रिका “द हिंदू” के इस राजनीतिक विश्लेषण की राय ली जाए तो उनके वरिष्ठ पत्रकारों का कहना है, कि “मोदी सरकार के इस फैसले के पीछे उत्तर प्रदेश और पंजाब दोनों राज्यों के आगामी चुनाव मुख्य भूमिका निभाते हैं. किसान आंदोलन छेड़ने के बाद यहां की सियासत ने मोड़ लिया है, इसका स्पष्ट असर उत्तर प्रदेश पर देखा जा सकता है. इसके अलावा कई लिहाज से पंजाब में भी सियासत में मची गर्मा गर्मी देखी जा सकती है.”
अगर अकेले पंजाब की बात की जाए तो यहां वर्तमान में कांग्रेस की सरकार मौजूद है, लेकिन फिर भी यहां भारतीय जनता पार्टी के समर्थक बड़ी संख्या में मौजूद थे. इसके अलावा भारतीय जनता पार्टी के पुराने साथी “अकाली दल” ने भी पार्टी का साथ छोड़ दिया, और किसान बिल का विरोध करते हुए इसे वापस लेने की गुहार लगाई. राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है की पंजाब में भारतीय जनता पार्टी का अकाली दल से अलग होना उनके लिए थोड़ा नुकसानदायक हो सकता है. हालांकि यह कितना नुकसानदायक होगा? यह तो चुनाव संपन्न होने के बाद ही मालूम पड़ेगा.
उत्तर प्रदेश अकेला 400 से अधिक विधानसभा सीटों के लिए चुनाव करवाता है, जहां पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हिंदुओं की अपेक्षा मुस्लिम जनसंख्या अधिक है, और जैसा कि हम सभी जानते हैं की मुस्लिम समुदाय का भारतीय जनता पार्टी के साथ कोई खास लगाव नहीं है. इसलिए यहां से भारतीय जनता पार्टी के समर्थक जाट और 30% अन्य जनसंख्या है. यह समस्त जनसंख्या किसान वर्ग से आती है, ऐसे में यदि सरकार इस जनसंख्या से अपना नाता तोड़ती है तो यहां से भी भारतीय जनता पार्टी को वोट मिलने की संभावना कम हो जाती है.
क्या भारतीय जनता पार्टी को इसके संकेत मिल चुके हैं?
पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह के कांग्रेस से अलग होने के बावजूद भी कृषि अर्थशास्त्रियों का कहना है की किसान बिल रद्द करने के फैसले के बावजूद भी पंजाब से पार्टी को वोट नहीं मिलने वाले. ऐसे में भारतीय जनता पार्टी के लिए यह आवश्यक है कि वह अपने पुराने साथी अकाली दल के साथ वापस गठबंधन करें. यदि पार्टी वापस अकाली दल के साथ गठबंधन करती है तो शायद उन्हें वोट मिल सकते हैं.
कहा जा रहा है की किसान बिल पास होने के बाद भारतीय जनता पार्टी को सियासत में मची गर्मा गर्मी स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगी. यानी कि कहीं ना कहीं सलाहकारों ने सरकार को आगाह किया है कि यदि वह किसान वर्ग से अपना नाता तोड़ते हैं तो उन्हें इसकी बड़ी भरपाई करनी होगी. हालांकि साल भर की मशक्कत के बाद आखिरकार किसान बिल रद्द हो गए हैं जो भारतीय किसानों के लिए एक सुखद खबर है.
किसान बिल रद्द होने पर क्या है किसानों का कहना?
जब धरना स्थल पर मीडिया ने किसानों से बातचीत की तो उनका कहना है कि वे हाथों हाथ आंदोलन वापस नहीं लेंगे. उनका कहना है कि वे उस दिन का इंतजार करेंगे जब संसद में यह बिल रद्द हो जाएंगे. इसके अलावा किसान वर्ग अपने साथ हुई साल भर की प्रताड़ना से बेहद आक्रोशित हैं, उनका कहना है की पूरे आंदोलन में लगभग 700 किसानों ने अपनी जान गवा दी है.
इसके अलावा लखीमपुर खीरी में मंत्री अजय मिश्रा के बेटे ने किसानों पर गाड़ी भी चला दी थी, जिसके बाद कुचलने से कुछ किसानों की मौत हो गई थी. हालांकि बाद में उन्हें मुआवजे के तौर पर 45-45 लाख रुपए दिए गए थे. लेकिन जिन्हें कुचला गया उनकी आत्मा के साथ क्या बीती होगी? इसके अलावा भी कई बार किसानों पर लाठीचार्ज और पानी बरसाया गया था.
कई लोगों ने तो मासूम किसानों के खिलाफ यह भी कहा था की यह नकली किसान है और यह एक अलग देश की नींव रखने के लिए यहां इकट्ठे हुए हैं. कई लोगों ने उन्हें “खालिस्तानी” करार करने की पूरी कोशिश की थी. लेकिन प्रधानमंत्री के इस फैसले के बाद यह सिद्ध हो चुका है की किसान आंदोलन नकली किसानों से नहीं चल रहा था, यहां केवल वही इकट्ठा हुए थे जो वास्तव में अपनी समस्याओं से प्रताड़ित थे.