सनातन धर्म के धर्म शास्त्रों में “मौन” का अत्यधिक महत्व बताया गया है, कहा गया है कि व्यक्ति को अपने जीवन में अधिक से अधिक मौन धारण करना चाहिए.
मौन की व्याख्या इस प्रकार से की गई है कि जिस व्यक्ति में मौन धारण की विशेषता है वह अपने जीवन में बड़े से बड़े विवाद जल्दी सुलझा सकता है.
बेवजह बोलने की अपेक्षा मौन धारण उत्तम है, यानी कि व्यक्ति को अपने जीवन में सम्यक और शुद्ध शब्दों का प्रयोग करना बेहद आवश्यक है. मौन धारण करने से हम अपने अंतर्मन से संपर्क में रहते हैं और हमारी मानसिक स्थिति संतुलित रहती है.
लेकिन क्या जीवन में हर समय मौन आवश्यक है? क्या केवल मौन धारण करना ही समस्या का समाधान है? इस विषय में भगवान श्री कृष्ण ने भगवत गीता में बड़े ही विस्तार से बताया है, और आज हम इसी विषय पर चर्चा करेंगे.
भागवत गीता के प्रथम एवं द्वितीय अध्याय के अनुसार –
भगवत गीता के प्रथम “अर्जुन विषाद योग” एवं द्वितीय “सांख्य योग” अध्याय में भगवान श्री कृष्ण ने मौन एवं प्रतिकार की परिस्थितियों का वर्णन किया है. यानी कि भगवान श्री कृष्ण ने बताया है कि हमें किस परिस्थिति में बोलना है एवं किस परिस्थिति में हमें चुप रहना है.
यह ज्ञान भगवान श्री कृष्ण ने उस समय दिया था जब युद्ध भूमि में खड़ा अर्जुन अपने सगे संबंधियों का खून बहाने से मना कर दिया था, अर्जुन का कहना था कि अपने दादा और गुरुओं को इस प्रकार युद्ध भूमि में देखकर उसका मन विचलित हो उठा है और उसमें उनका वध करने की हिम्मत नहीं है. उस समय भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को अपने अमृत ज्ञान के द्वारा मार्गदर्शन दिया था.
भगवान श्री कृष्ण के अनुसार जीवन में हर समय मौन बेहद आवश्यक है. बेवजह बोलना किसी प्रकार से ठीक नहीं कहा जा सकता. लेकिन हमें हमारी चुप्पी उस समय तोड़ देनी चाहिए जब हमारे अधिकार का हनन हो रहा हो. यदि कोई व्यक्ति हमारा अधिकार छीनने की चेष्टा करता है तो उस वक्त हमारा आवाज उठाना बेहद आवश्यक है.
यदि बात हमारे हक की हो और हमारे साथ अन्याय होता प्रतीत हो तो उस समय मौन ठीक नहीं कहा जा सकता. भगवान श्रीकृष्ण आगे कहते हैं कि यदि हमारे चारों और पाप बढ़ रहा है हमारा शोषण हो रहा है हमारे भावनाओं का सम्मान नहीं किया जा रहा तो ऐसे समय में हमें आवश्यक रूप से अपनी चुप्पी तोड़नी है.
हमारा दुश्मन चाहे जो भी हो लेकिन ऐसे समय में हमें उसका प्रतिकार करना आवश्यक है. यदि आप ऐसी स्थिति में अभी आवाज नहीं उठाते हैं तो आप किसी मृत शरीर से कम नहीं है.
गीता ज्ञान के अनुसार जब बात हमारे सम्मान की हो, हमारे आत्म सम्मान की हो और हमारा पक्ष सत्य है, तो ऐसी स्थिति में दुष्ट का प्रतिकार करने में कोई समस्या नहीं है. जब हमारे परिवार जनों पर किसी प्रकार का संकट छाया हुआ हो लेकिन हम फिर भी चुप हैं तो शायद हम डरपोक है.
यदि हम ऐसे ही साथियों में भी आवाज नहीं उठाते हैं तो इसका आशय यह हुआ है कि हमारा जमीर मर चुका है. वास्तव में हमारा दमन शुरू हो चुका है और इसी के साथ बहुत जल्दी हमारे जीवन का पतन हो जाएगा.
ऐसी स्थितियां आज हमारे चारों तरफ देखी जा सकती है, जब समाज के ऊंची जाति के कहे जाने वाले लोग दलितों के साथ अन्याय करते हैं. जब सत्ता में आसीन राजनीतिज्ञ अपने भ्रष्ट नीतियों से जनता का पैसा खा जाते हैं लेकिन फिर भी किसी में उनका प्रतिकार करने का साहस नहीं होता.
जब हमारे समाज के लोग बेवजह हमें परेशान करते हैं, हमारे लिए बुरे शब्दों का प्रयोग करते हैं. जब हमारे समाज में लड़का लड़की पर भेद किया जाता है, जब हमारे समाज में कुछ लोगों को शिक्षा जैसी चीजों से वंचित रखा जाता है. ऐसे समय में हमें किसी से डरने की कोई आवश्यकता नहीं है, ऐसे समय में हमारा आवाज उठाना बेहद आवश्यक है.
भगवान श्री कृष्ण के अनुसार :–
भगवान श्री कृष्ण के अनुसार इस संसार को अधर्मी से इतनी हानि नहीं होती जितनी धर्म जानने वालों के मौन से होती है. यानी यदि आपको पता है कि सत्य क्या है लेकिन फिर भी आप चुप हैं तो अन्याय करने वाला दोषी नहीं है, आप स्वयं दोषी हैं. यदि समाज में कोई भी व्यक्ति अपनी सीमा का उल्लंघन करता है अन्याय करता है तो ऐसे व्यक्ति को सबक सिखाना बेहद आवश्यक है.
महाभारत के युद्ध स्थली में भी ऐसा ही हुआ था, क्योंकि जब द्रोपदी का चीर हरण हुआ तब राजसभा में एक से एक ज्ञानु व्यक्ति बैठे थे. उस समय दरबार में पितामह भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, अंगराज कर्ण समेत शक्तिशाली और धर्म जानने वाले व्यक्ति थे लेकिन किसी ने भी दुष्ट दुर्योधन को रोकने का प्रयास नहीं किया.
दुर्योधन तो दुष्ट था, पापी था, अपने मामा शकुनि की बातों से प्रभावित था इसलिए उसे चीरहरण अपराध प्रतीत नहीं हुआ. लेकिन यदि उस समय राज्यसभा में आसीन ज्ञानी अपनी चुप्पी तोड़ते और दुर्योधन का प्रतिकार करते तो शायद महाभारत जैसा विकराल युद्ध नहीं होता जिसने पूरी मानवता को संकट में डाल दिया था.
इसीलिए प्रत्येक मानव के लिए यह आवश्यक है कि उसे अपने साथ हो रहे न्याय और अन्याय का संपूर्ण ज्ञान हो, व्यक्ति को यह पता होना चाहिए कि किस समय मेरा शोषण किया जा रहा है और मुझे इसका सामना करने की आवश्यकता है. यदि ऐसा नहीं किया जा सकता तो ऐसा व्यक्ति अपने जीवन में कभी सफल नहीं हो सकता.